दर्द के पंख | Dr Vandana Srivastava

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Photo: Dr Vandana Srivastava


सर्द शिशिर की रात्रि थी

आँखों में नमक घुला था,

सपनों की गर्म राख पर

मन का आकाश सूना पड़ा था .. 

तभी “दर्द” आया 

वो ना डरावना था, 

ना ही निर्दयी,

बस एक बूढ़े चित्रकार सा,

हाथ में कूंची 

और गहरी चुप्पी लिए..

उसने कहा 

“तेरे भीतर जो टूटा है,

उसे मत छिपा,

उसे बाहर उतार दे..!

मैंने पूछा —

“किस से?”

वो मुस्कुराया और बोला

अपने ही आँसुओं से....

फिर उसने मेरी पीठ पर

दर्द से लकीरें खींचीं,

और बोला 

“देख, अब तेरे पास पंख हैं..!

दर्द के पंख ..

मैंने कहा 

“ये तो जलते हैं..!

वो बोला 

“हाँ, क्योंकि ये राख से बने हैं"

मैं उड़ चली

और पहली बार जाना 

उड़ान हल्की नहीं होती,

वो दुख की गहराई से उठती है...

अब हर तूफ़ान से मेरी पहचान है 

अब गिरने का मुझे कोई डर नहीं है 

क्योंकि जिसने दर्द को पंख बनाया,

वो कभी गिरता नहीं,

बस दिशा बदलता है...

दर्द ने मुझे गिराया नहीं — गढ़ा है,

अब जब मैं दर्द के पंख लिए उड़ती हूँ,

तो मुझे आग ठंडी लगती है.

समुंदर मीठा लगता है,

हिम शुभ्र श्वेत कोमल लगता है ,

सूर्य चटकीला लगता है ..

ये सब मेरी इस उड़ान के साक्षी रहेंगे

अनंत काल तक..

और मैं

ऐसे ही उड़ती रहूंगी ,

नई ऊंचाइयों की ओर,

निडर साहसी बन कर ...

दर्द के पंख लेकर ....!!!


लेखिका : डॉ वन्दना श्रीवास्तव 

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